Zustfine

Zustfine

Stree aur Sangharsh

vandana sinha

 स्त्री और संघर्ष एक दूसरे का पर्याय हैं । चाहे कोई भी युग हो कोई भी सदी इन दोनों का साथ चोली दामन का सा है , जो कभी छूटता नहीं बस रंग रूप बदलता रहता है। या यूं कह लें युगो और सदियों के साथ स्त्रियों के संघर्ष का मुद्दा बदल जाता है पर खत्म कभी नहीं होता। 

अब अगर इस युग की बात करें तो प्रगतिशीलता के इस दौर में स्वर बदला , सोच बदली और परिणाम स्वरूप स्त्री काफी हद तक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और सशक्त हुई पर संघर्ष अभी जारी है। बस संघर्ष के वह मुद्दे बदल गए जो एक दशक पहले थे। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्त्री के संघर्ष के कई प्रासंगिक मुद्दों में से एक ज्वलंत मुद्दा है 'सिंगल मदर या एकल मां' का। आज स्त्री का उच्च शिक्षित एवं स्वावलंबी होना , पुरुष प्रधान समाज में अपनी सशक्त पहचान बनाना, पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों एवं सहनशीलता का ह्रास होना या असमय अपने जीवनसाथी को खो देना ऐसे कई कारण है जो सिंगल मदर को अस्तित्व में लाते हैं। कारण चाहे जो भी हो पर हर सिंगल मदर या एकल मां का संघर्ष एक सा होता है।

      सिंगल मदर यानी दोहरी भूमिका - एक ही वक्त पर मां भी और पिता भी । एक तरफ जहां पिता बनकर बच्चों को उच्च शिक्षा तथा अच्छी जीवनशैली देने के लिए रात-दिन कठिन परिश्रम करना तो वहीं दूसरी तरफ मां बनकर उन्हें भावनात्मक संबल प्रदान प्रदान कर एक अच्छा इंसान बनने को प्रेरित करना या सिर्फ और सिर्फ एक स्त्री के लिए ही संभव है। यह अक्षरशः सत्य है कि एक कोमल ममतामई मां वक्त पड़ने पर सशक्त पिता तो बन सकती है पर एक सशक्त पिता के लिए वक्त आने पर कोमल ममतामई मां बनना लगभग असंभव है। हम अगर नजर दौड़ाए‌ं तो हमारे आसपास ऐसी कई एकल माओं की जाने कितनी कहानियां बिखरी पड़ी है जो इस कथन के सत्यता की बार-बार पुष्टि करती हैं। एकल माताएं कठिन समय में टूट कर बिखरने की जगह चट्टान की तरह मजबूती से उठ कर खड़ी हो जाती हैं, क्योंकि उनकी प्राथमिकता अपने सुख-दुख से इतर, अपने बच्चों का सुखद भविष्य है ।जिसके लिए वह पारिवारिक तथा सामाजिक हर तरह की बाधाओं से दो-दो हाथ करते हुए माता तथा पिता की यह दोहरी भूमिका बखूबी आजीवन निभाती हैं।और बच्चों पर इसकी आंच भी नहीं आने देती। ऐसा देखा गया है कि एकल माओं के बच्चे अपने समाज तथा वातावरण के प्रति ज्यादा जिम्मेदार, सहनशील एवं संवेदनशील होते हैं क्योंकि उनकी परवरिश में उनकी मां का संयम व संघर्ष झलकता है।

अंत में मैं एक प्रचलित कथन और उसके औचित्य पर टिप्पणी करते हुए इस इस अनुच्छेद का अंत करना चाहूंगी। कहते हैं कि गृहस्थी की गाड़ी  स्त्री और पुरुष रुपी दो पहियों पर ही सुचारू रूप से चल सकती है ।एक भी पहिया अगर खिसका तो गाड़ी लड़खड़ाने लगती है । परंतु मेरे विचार से आज के परिपेक्ष्य में अगर यह पूर्णतः असत्य नहीं तो सत्य भी नहीं है। सिंगल मदर या एकल मां में वह कूवत है कि मुख पर मुस्कान लिए,  सारी कठिनाइयों को झेलते हुए वह एक ही पहिए पर आजीवन गृहस्थी की गाड़ी खींचते, 'खींचना' कहना गलत होगा , दौड़ाते हुए अपने बच्चों का मार्ग प्रशस्त कर उन्हें उनके इच्छित गंतव्य तक पहुंचाती है। और बदले में बच्चों से किसी तरह की कोई अपेक्षा नहीं रखती प्यार और सम्मान के अलावा।


0 Comments